ابو داؤد
رکن
- شمولیت
- اپریل 27، 2020
- پیغامات
- 514
- ری ایکشن اسکور
- 167
- پوائنٹ
- 77
समस्त प्रशंसाएं अल्लाह ही के लिए हैं । तथा दुरूद-ओ-सलाम हो अल्लाह के पैग़म्बर पर, आप के घर वालों एवं वंशजों पर । आप के सहाबा पर एवं आपसे वला रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर । अम्मा बअद:
मुसलमान जब आलस्य एवं असतर्कता में ग्रसित हुए तो सलीबी (ईसाई) मनोवृत्तियों के आक्रमण का मुसलमानों पर सबसे भयानक प्रभाव यह पड़ा कि उनके बीच ऐसी घातक विचारधाराओं का बीज बो दिया गया जिनसे उनके दीन की आधारशिलाएं ढह गईं एवं मुसलमानों की एकता निरर्थक हो गई तथा उम्मत-ए-मुस्लिमा का अस्तित्व छिन्न-भिन्न होकर रह गया । मुसलमानों के हृदयों को अस्त-व्यस्त करने वाली इन दूषित विचारधाराओं में से एक विचारधारा देशभक्ति है ।
मुसलमान जब आलस्य एवं असतर्कता में ग्रसित हुए तो सलीबी (ईसाई) मनोवृत्तियों के आक्रमण का मुसलमानों पर सबसे भयानक प्रभाव यह पड़ा कि उनके बीच ऐसी घातक विचारधाराओं का बीज बो दिया गया जिनसे उनके दीन की आधारशिलाएं ढह गईं एवं मुसलमानों की एकता निरर्थक हो गई तथा उम्मत-ए-मुस्लिमा का अस्तित्व छिन्न-भिन्न होकर रह गया । मुसलमानों के हृदयों को अस्त-व्यस्त करने वाली इन दूषित विचारधाराओं में से एक विचारधारा देशभक्ति है ।
देशभक्ति की परिभाषा एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
“देशभक्ति” शब्दकोष के अनुसार “देश” से निकला है । तथा देश वो स्थान जहाँ आप रहते हों, जो व्यक्ति का विरामस्थल तथा उनका घर हो । अर्थात वो स्थान जहाँ लोग अपना ठिकाना बनाते हैं । परिभाषिक रूप से “देशभक्ति/राष्ट्रभक्ति” वह है जो युरोप में वैचारिक एवं राजनीतिक क्रांति आने के बाद प्रकट हुई एवं जिसके कारण यूरोपीय संघ का ढांचा पुनः, नए सिरे से अस्तित्व में आया। धर्म के आधार पर स्थापित धार्मिक समूह (प्रोटेस्टेंट, कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स एवं अरमेनी) सांस्कृतिक तथा भौगोलिक आधारों पर स्थापित समूहों में परिवर्तित हो गईं। अतः राष्ट्रराज्य अस्तित्व में आए तथा उन्होंने धर्मनिरपेक्षता (secularism) को अपने जीवन की नीति बना लिया। यह गिरजाघरों के अत्याचार, बाबाओं के भ्रष्टाचार एवं दीन-धर्म के नाम पर महाराजाओं की पकड़-धकड़ का परिणाम था तथा इस यूरोपी धार्मिक रक्तपात रण में अनगिनत प्राण एवं धन-दौलत व्यर्थ हुए ।
अतः देशभक्ति का अर्थ एवं मनहज वही है जो यूरोप में स्थापित तथा लागू है । यह देश की चिंता से संबंधित है, तथा देश वो क्षेत्र है जहाँ लोगों का कोई समूह रहता हो जो देश के लिए अपनी वला(निष्ठा), अपने से गढ़े हुए कानून की संप्रभुता एवं अपने देश के शासक की आज्ञा पर एकमत हो । इस विचारधारा के अनुसार देश में रहने वाले(देश-भक्त) के अधिकार देश में न रहने वाले(विदेशी) के अधिकार से भिन्न होते हैं । और इसके साथ-साथ देशभक्त के लिए देश के नियमों तथा प्रबंधनों की रक्षा करना तथा उसके लिए वला रखने वाले से मैत्री रखना एवं उससे शत्रुता करने वालों से शत्रुता करना अनिवार्य है ।
यह देशभक्ति की वास्तविकता है जिसका बीज पश्चिमी नास्तिकों ने मुसलमानों में बोया एवं दहाईयों पहले आक्रमणकारी सलीबियों ने संग्रामों शहरों को तहस-नहस कर डालने तथा वहाँ के वासियों को ईसाई बनाने के पश्चात बलपूर्वक उसे मुसलमानों पर थोप दिया, ताकि मुसलमानों की निष्ठा अपने क्षेत्रों पर आधारित हो जाए न कि दीन पर एवं परिणामस्वरूप मुसलमानों की क्षमता निर्बल हो जाएगी एवं उनकी शक्ती चूर-चूर हो जाएगी तथा उन पर अधिकार जमाना सरल हो जाएगा । अतः इस्लाम के सपूतों के यहाँ यह राक्षसी देशभक्ति की महामारी फैलती चली गई। और अब अधिकांश मुसलमान, दहाईयों से अपने देशवासियों (अर्थात देश के साझी लोग) की मित्रता का गुणगान कर रहें हैं तथा विदेशी (अर्थात दीन में साझी लोगों) से शत्रुता कर रहे हैं ।
और फिर देशभक्ति से उत्पन्न होने वाली राक्षसी शब्दावलियाँ प्रत्यक्ष होने लगीं । उदाहरणतः “अल्लाह, राष्ट्र, नेता”,“दीन अल्लाह के लिए, देश सबके लिए”,“देश की मिट्टी सबकी मिट्टी है”, “सबसे पहले देश”, “राष्ट्रीय प्रतिरोध” एवं इसके अतिरिक्त अन्य बहुत हैं ।
देशभक्ति जातीयता की पुत्री है
उपर्युक्त तर्कों के संदर्भ में यदि देशभक्ति का अर्थ देश के आधार पर वला रखना है तो जातीयता का अर्थ जाति (कौम) के आधार पर वला रखना है । जातीयता भाषा के अनुसार “जाति” शब्द से निकला है एवं प्रत्येक व्यक्ति की जाति उसका गुट तथा वंश है । परंतु परिभाषिक रूप से “जाति” उस सामूहिक ढांचे का नाम है जो समान विशेषताओं एवं गुणों जैसे इतिहास, रंग, भाषा, खून इत्यादि के आधार पर लोगों के किसी जमावड़े को आपस में जोड़ता हो । जातीयता अज्ञानताकाल के उन भटके हुए मनहजों में से एक है जो खिलाफ़त के निरस्त एवं दारुल-इस्लाम के पतन के पश्चात इस्लामी क्षेत्रों पर छा गया । तब जातीयता का बीज वो पहला घातक हथियार बना जिसने इस्लामी अक़ीदे की नींव को हिला कर रख दिया तथा जातीयता (अरबी, खलीजी, अफ़रीक़ी, तुर्की इत्यादि) के आधार पर वला एवं सहयोग एवं एकता अस्तित्व में आने लगी । तथा इस राक्षसी जातीयता के पेट से ही देशभक्ति के नासूर ने जन्म लिया है । अतः दोनों का आरंभ एक ही है तथा दोनों का हुक्म भी एक ही है।
इस्लाम में देशभक्ति का ह़ुक्म
जैसा कि बताया गया है कि देशभक्ति का अर्थ इस्लामी अल-वला वल-बरा के अक़ीदे को छोड़कर देश के लिए अल-वला वल-बरा के अक़ीदे को धारण करना है। अतः इस आधार पर देशभक्ति मिल्लत से निकाल देने वाला कुफ़्र-ए-अकबर है तथा जिसने भी इसको गले लगाया या इसकी ओर निमंत्रण दिया या इसके लिए कर्म किया तो वह दीन-ए-इस्लाम से मुर्तद हो गया। इसका विस्तृत स्पष्टिकरण निम्नलिखित है ।
बातिल दीन देशभक्ति के कुछ दोष
पहला: देशभक्ति अल्लाह तआला के साथ शिर्क है । देशभक्ति एक बातिल दीन है एवं अज्ञानता से भरा एक मनहज है । यह इसलिए कि इसमें देश को एक ऐसी प्रतिमा एवं ताग़ूत बना लिया जाता है कि जिसकी अल्लाह के अतिरिक्त उपासना की जाती है । अतः यही स्थिति लोगों के लिए अनिवार्य कर देती है कि मात्र इस (देश) के लिए ही कोई कर्म किया जाए । इसके लिए युद्ध किया जाए तथा निछावर हो जाया जाए । और जो कोई भी इस सीमा के बाहर है उसके साथ शत्रुता की जाए चाहे वह अल्लाह के मित्रों में से ही क्यों न हो । और जो कोई इसके सीमा के भीतर हैं उनसे स्नेह किया जाए एवं मित्रता की जाए चाहे वे दुष्ट काफ़िर अथवा अपवित्र मुश्रिक ही क्यों न हों । और यही कारण है जिससे यह एक ताग़ूत ठहराया जाता है । अल्लाह तआला का कथन है:
{وَمِنَ النَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ اللهِ أَندَادًم ا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللهِ}
[सूरह अल्-बक़रा: 165]
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह से हटकर दूसरों को उसके समकक्ष ठहराते हैं, उनसे ऐसा प्रेम करते हैं जैसा अल्लाह से प्रेम करना चाहिए
दूसरा: देशभक्ति अक़ीदा अल-वला वल-बरा के प्रतिकूल (विरुद्ध) है । यह इसलिए कि इस्लाम में अल-वला वल-बरा की नींव मुसलमानों एवं काफ़िरों के बीच ‘दीन’ पर स्थापित है तथा देशभक्ति दीन की भिन्नता को ही कोई मान्यता नहीं देती है ।
जैसा कि अल्लाह तआला का कथन है:
{إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَالَّذِينَ ءَامَنُواْ الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَوٰةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَوٰةَ وَهُمْ رٰكِعُونَ}
[सूरह अल्-मायदा: 55]
तुम्हारे मित्र तो केवल अल्लाह और उसका रसूल और वे ईमानवाले हैं जो विनम्रता के साथ नमाज़ क़ायम करते और ज़कात देते हैं
और अल्लाह तआला का कथन है:
ا{يـٰأَيُّهَا الَّذِينَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَكُمْ هُزُوًا وَّلَعِبًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ اَوْلِيَاءَ ج وَاتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ}ا
[सूरह अल्-मायदा: 57]
ऐ ईमान लाने वालों! तुमसे पहले जिनको किताब दी गयी थी, जिन्होंने तुम्हारे धर्म(दीन) को हंसी-खेल बना लिया है, उन्हें और इनकार करने वालों को अपना मित्र न बनाओ
किंतु देशभक्तों के अनुसार मवालात अर्थात मित्रता एवं प्रेमभाव भूमि-हित के आधार पर है जो कि देश की सीमाओं के भीतर घिरी हुई है । परिणामस्वरूप यह आधार अल्लाह तआला के बनाए हुए उन विषमताओं को समाप्त कर देती है जो कुफ़्फ़ार से दूरी बनाए रखने में शरई सबब (कारण) का स्थान रखते हैं । और यह तो पवित्र शरीअत के नुसूस (क़ुरआन-ओ-हदीस से साबित अटल प्रमाणों) से खुला टकराव है ।
बारी तआला का कथन है:
ا{بَشِّرِالْمُنـٰفِقِينَ بِأَنَّ لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا الَّذِينَ يَتَّخِذُونَ الْكـٰفِرِينَ أَوْلِيَآءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ج أَيَبْتَغُونَ عِندَهُمُ الْعِزَّةَ فَإِنَّ الْعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعًا}ا
[सूरह अन्-निसा: 138-139]
मुनाफ़िक़ों(कपटाचारियों) को मंगल-सुचना दे दो कि उनके लिए दुखद यातना है, जो ईमानवालों को छोड़कर इनकार करनेवालों को अपना मित्र बनाते हैं
[सूरह अन्-निसा: 138-139]
मुनाफ़िक़ों(कपटाचारियों) को मंगल-सुचना दे दो कि उनके लिए दुखद यातना है, जो ईमानवालों को छोड़कर इनकार करनेवालों को अपना मित्र बनाते हैं
तीसरा: देशभक्ति “दार (उदाहरणतः दारुल इस्लाम, दारुल कुफ्र इत्यादि)” एवं “हिजरत” के अह़काम(आदेशों) को निलंबित कर देती है । यह इसलिए कि राष्ट्रीयता के आधार पर संबंध दीनी संबंधों को तोड़कर स्थापित होते हैं जिससे अवश्य ही लोगों के अह़काम घुल-मिल जाते हैं । जबकि यह शरीअत के निश्चिय बातों में से है कि दारुल-कुफ़्र में कुफ़्री कानूनों की संप्रभुता होती है जो कि दारुल-इस्लाम से एकदम उलट है कि जहाँ इस्लाम के आदेशों को सर्वोच्चता मिली होती है तथा अल्लाह की अवतरित की हुई शरीअत के अनुसार फ़ैसले किए जाते हैं । और इन दोनों में से प्रत्येक के अह़काम भिन्न हैं जिनसे यह आपस में भेद किए जाते हैं । इन्हीं अह़काम में से एक हुक्म दारुल-कुफ़्र से दारुल-इस्लाम की ओर हिजरत की अनिवार्यता की भी है । अतः जहाँ तक देशभक्ति के दीन की बात है तो इसे इन मुद्दों से कोई लेना-देना ही नहीं । इसलिए कि देशभक्त तो मात्र देश को ही ध्यान में रखता है बल्कि वह इसकी सुरक्षा भी करता है चाहे यह देश दारुल-कुफ़्र, दारुल-ह़र्ब अथवा दारुल-इर्तिदाद ही क्यों न हो ।
चौथा: देशभक्ति मुसलमानों और काफ़िरों के मध्य विषमता को मिटा डालती है । अतः इससे वह लोग जिनका नाम मुसलमान एवं वह लोग जिन्हें काफ़िर कहा जाता है, सब आपस में घुल-मिल जाते हैं क्यूंकि भूमि-विकास की नींव पूर्णतः लोगों के साथ व्यवहार पर टिकी है । तथा यह दीन के आधार पर स्थापित सीमाओं को समाप्त ही कर डालती है । परंतु इसे अल्लाह तआला ने संसार एवं आख़िरत (परलोक) में लोगों के बीच भेद करने का शरई सबब (कारण) बनाया है । देशभक्ति में सभी लोग, चाहे मोमिन हों या काफ़िर, सदाचारी हों या दुराचारी सब समान हैं। तथा यह तो दीन के इन नुसूस को प्रत्यक्ष रूप से झुठलाना है:
{أَفَنَجْعَلُ الْمُسْلِمِينَ کَالْمُجْرِمِينَ مَا لَكُمْ كَيْفَ تَحْكُمُونَ}
[सूरह अल्-क़लम: 35-36]
क्या हम आज्ञाकारियों की दशा अपराधियों जैसी करदें? तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे फ़ैसले करते हो?
{أَمْ نَجْعَلُ الَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّـٰلِحَـٰتِ کَالْمُفْسِدِينَ فِى الْأَرْضِ أَمْ نَجْعَلُ الْمُتَّقِينَ کَالْفُجَّارِ}
[सूरह साद: 28]
क्या हम उन लोगों को जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उनके सामान कर देंगे जो ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं; या डर रखने वालों को हम दुराचारियों जैसा कर देंगे?
[सूरह अल्-क़लम: 35-36]
क्या हम आज्ञाकारियों की दशा अपराधियों जैसी करदें? तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे फ़ैसले करते हो?
{أَمْ نَجْعَلُ الَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّـٰلِحَـٰتِ کَالْمُفْسِدِينَ فِى الْأَرْضِ أَمْ نَجْعَلُ الْمُتَّقِينَ کَالْفُجَّارِ}
[सूरह साद: 28]
क्या हम उन लोगों को जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उनके सामान कर देंगे जो ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं; या डर रखने वालों को हम दुराचारियों जैसा कर देंगे?
पाँचवा: देशभक्ति में इक़्दामी जिहाद निलंबित हो जाता है जो कि जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह के दो प्रकारों में से एक है, तथा यह अल्लाह के कलिमा की सर्वोच्चता के लिए कुफ़्फ़ार से उनके सीमा में घुसकर युद्ध करने से होता है । परंतु देशभक्तों के अनुसार जिहाद तो बाहरी आक्रमणों के विरुद्ध मात्र देश की सीमाओं के भीतर रहते हुए किया जा सकता है तथा उन सीमाओं के आगे बढ़ना वर्जित है । उनका सर्वप्रथम उद्देश्य देश की मिट्टी की रक्षा तथा धरती की अमन-शांति होती है । अपने पड़ोस के कुफ़्फ़ार पर चढ़ाई करते हुए उनके सीमाओ में प्रवेश करना “अनीति” एवं पड़ोसी देशों की “राष्ट्रीय सुरक्षा” का उल्लंघन घोषित किया जाता है । शेष यह “अमन-शांति” एवं “अच्छे पड़ोसी” के संबंधों को भी बिगाड़ देता है तथा अतिरिक्त यह कि उन देशों के “आंतरिक समस्याओं” में भी हस्तक्षेप माना जाता है
यह विचार जिहाद के अनिवार्यता को स्पष्ट रूप से निलंबित कर देने का कारण है। तथा प्रत्येक स्थान पर कुफ़्र के विरुद्ध युद्ध करने से सम्बंधित निश्चित आदेशों के भी विरुद्ध है कि यह युद्ध किया जाता रहे यहाँ तक कि अकेले अल्लाह तआला की पूर्णतः उपासना होने लगे, धरती से शिर्क मिट जाए तथा अल्लाह की अवतरित शरीअत की संप्रभुता स्थापित हो जाए ।
छठा: देशभक्ति में विभेद एवं गुटबंदी है, क्यूंकि यह मुसलमानों के बीच विवाद का कारण है । तथा उन्हें घृणाग्रस्त राष्ट्रों, जातियों में बाँट देती है, कि उनमें से प्रत्येक अपनी भूमि, इतिहास और परंपरा के पक्षपात से ग्रस्त हो जाते हैं । अतः यह अरबी मुसलमान को अजमी मुसलमान भाई से दूर कर देती है । बल्कि यह अरब मुसलमानों में भी विवाद डाल देती है उदाहरणतः ईराक़ी, शामी एवं मिस्री इत्यादि । इसी प्रकार से अजमी मुसलमानों में भी गुटबंदी का यही कारण है उदाहरणतः तुर्की, कुर्दी, फ़ार्सी इत्यादि । इसमें अल्लाह तआला के उन आदेशों का उल्लंघन है जिनमें एक साथ मिल जाने एवं उसकी रस्सी को मज़बूती से थाम लेने का आदेश दिया गया है ।
जैसा कि बारी तआला का कथन है:
{وَاعْتَصِمُواْ بِحَبْلِ اللَّهِ جَمِيعًما وَلَا تَفَرَّقُواْ }
[सूरह आले इमरान: 103]
और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो
तथा इसके अंतर्गत भाई-चारे को स्थापित करना अनिवार्य है । अतः अल्लाह तआला का कथन है:
{إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌم}
[सूरह अल्-ह़ुजरात: 10]
(निस्संदेह मोमिन आपस में भाई-भाई हैं)
तथा यही वो निखरा हुआ चित्र है जो स़ह़ाबा रिज़वानुल्लाहि अलैहिम अजमईन में समाया था कि हमज़ा जो कि कुरैशी थे, बिलाल जो कि हबशी थे, सुहैब जो कि रूमी थे- सबको इस्लाम ने इकट्ठा कर दिया था न कि किसी राष्ट्र ने ।
सातवां: देशभक्ति अज्ञानताकाल की पुकारों में से एक है तथा इस्लाम ने अज्ञानताकाल के प्रत्येक पुकारों से सदैव युद्ध किया है । चाहे वो किसी प्रकार के रंग, वंश, जाति, खून, देश एवं धर्म इत्यादि ही से क्यों न उत्पन्न हुई हो । इसमें कोई संदेह नहीं कि जातीयता एवं देशभक्ति की ओर निमंत्रण इस्लाम की ओर निमंत्रण से भिन्न है । शेखुल्-इस्लाम इमाम इब्ने तैमियह रह़िमहुल्लाह ने कहा: “जिस किसी ने भी इस्लाम एवं क़ुर्आन की ओर निमंत्रण से हटकर वंश, देश, जाति, धर्म एवं तरीक़े की ओर निमंत्रण दिया तो वह अज्ञानताकाल की पुकार लगाने वालों में से है ।”(मजमू उल फ़तावा) और इसमें संदेह नहीं कि जातीयता तथा देशभक्ति वाले जातीय पक्षपात एवं देशी अज्ञानता की ओर निमंत्रण देते हैं तथा देश एवं पद पर अहंकार करते हैं किंतु इस्लाम उनसे एवं उनके कुफ़्रिया मनहज से दोषमुक्त है ।
संदेह और उनका निवारण
देशभक्त सदैव इस बात से उपद्रव मचाते हैं कि “देश से प्रेम ईमान का हिस्सा है।” और इसका राग अलापते हैं कि देश के हित में मरना शहादत की मृत्यु है । तथा इस प्रकार के अनेक भ्रम एवं संदेह हैं जो वे अपनी जनता के कानों में डालते रहते हैं । हम इसको निरस्त करते हुए कहते हैं: “जहाँ तक उनके कथन (देशप्रेम ईमान का हिस्सा है) का संबंध है तो यह न तो कोई ह़दीस है तथा न ही किसी महात्मा का कथन, इसकी सनद भी वैसे ही निरर्थक है जैसे इसका मतन । यह वाक्य पूर्णतया शरीअत के विरुद्ध है । इसलिए कि यदि देशप्रेम को ईमान का कोई खंड या मापदंड बना दिया जाए तो इससे अल्लाह तआला की शरीअत का प्रत्यक्ष विरोध होता है। तब क्या किया जाएगा यदि देश दारुल्-कुफ़्र हो? तब क्या मुसलमान कुफ़्र से प्रेम करने लग जाएंगे?? और उनका यह कहना कि “देश की रक्षा में मरना शहादत की मृत्यु है”, तो यह एक अतिस्पष्ट झूठ है । इसलिए कि यदि यह स्वीकार करलें तो फिर हम और अपने क्षेत्रों की रक्षा करने वाले काफ़िर एक समान हो जाएंगे । अतः तब हमारे एवं उनके मध्य क्या विषमता रह जाएगी?
निस्संदेह शहीद वह है जो अल्लाह के कलिमे को सर्वोच्च्य करने के लिए लड़ाई करे, और यह वाक्य कि “जो अपनी भूमि के लिए मारा गया वह शहीद है” तो यह उस स़ह़ीह़ ह़दीस में मनगढ़ंत वृद्धि है । स़ह़ीह़ ह़दीस यह है:(जो अपना धन बचाने के लिए मारा गया वह शहीद है, जो अपना प्राण बचाते हुए मारा गया वह शहीद है, जो अपना दीन बचाते हुए मारा गया वह शहीद है एवं जो अपने घरवालों को बचाते हुए मारा गया वह शहीद है) । इसका इमाम अह़मद, अबु दावूद, नसई और तिर्मिज़ी ने वर्णन किया है । इसपर जो मनगढ़ंत वृद्धि है वो किसी भी पुस्तक मे उपस्थित नहीं है ।
यदि हम इस वाक्य को किसी रूप से मान भी लें, तब भी जिस भूमि के लिए मुसलमान मरकर शहीद कहलाएगा वो दारुल्-इस्लाम की धरती होगी जहाँ अल्लाह की शरीअत का शासन हो । अतः मुजाहिद उसकी रक्षा करेगा तथा उसपर आक्रमण करने वालों से युद्ध करेगा । इसलिए कि वहाँ जिस इस्लामी शरीअत की संप्रभुता है उसकी रक्षा की जा सके न कि वहाँ की मिट्टी की, जो कि कभी दारुल्-कुफ़्र, दारुल्-इर्तिदाद, दारुल्-ह़र्ब भी हो सकती है, जैसा कि वर्तमान में अधिकतर देशों की परिस्थिति है ।
चेतावनी तथा उपदेश
यहाँ हम इस बात से सचेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि हम इस बात से असहमत नहीं कि व्यक्ति प्राकृतिक रूप से उस परिवेश से परिचित हो जाता है जहाँ वह पला-बढ़ा हो क्यूंकि यह तो प्राकृतिक प्रेम है जिसको वही नकार सकता है जो अपनी प्रकृति से ही पलट जाए । अल्लाह अज़्ज़-वजल ने अपने नबी को इस आदेश के साथ संबोधित किया है:
{اقَدْ نَرٰى تَـقَلُّبَ وَجْهِكَ فِي السَّمَآءِ ج فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضٰهَا فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ}
[सूरह अल्-बक़रह: 144]
हम आकाश में तुम्हारे चेहरे की गर्दिश देख रहे हैं, तो हम अवश्य ही तुम्हें उसी क़िबले का अधिकारी बना देंगे जिसे तुम पसंद करते हो । अतः मस्जिदे-हराम(काबा) की ओर अपना रुख करो ।
अर्थात हम आपके मुख को बैतुल-मक़दिस से उस क़िबले की ओर पलट देंगे जो आपको पसंद है और आपके हृदय को भाता है ।(तफ़सीर अत्-तबरी)
तथा वो (क़िबला) मक्का है जिसके सन्दर्भ में नबी ने कहा: (तू कितना ही पवित्र और मुझे प्यारा शहर है, यदि मेरी कौम मुझे तुझसे न निकालती तो मैं तुझे न छोड़ता ।) [रवाहु तिर्मिज़ी व क़ाल हदीसुन हसनुन सह़ीह़ुन व ग़रीबुन], यह आप की ओर से आपके उस क्षेत्र से प्राकृतिक प्रेम का ऐलान था जहाँ आपका पालन-पोषण हुआ था ।
यह प्रेम भी अन्य प्रेमों के प्रकार जैसा ही है जो इन्सान के स्वभाव में है । यह कोई ना-पसंदीदा चीज़ नहीं है और न ही इसपर कोई प्रतिबंध है । परंतु शर्त यह है कि यह प्रेम अपनी सीमा को पार न करें । और न ही उन आदेशों के विरोध का कारण बनें जिनका अल्लाह ने आदेश दिया है और जिनसे रोका है ।
अतः बारी तआला का कथन है:
قُلْ اِنْ كَانَ اٰبَآؤُكُمْ وَاَبْنَآ ؤُكُمْ وَاِخْوَانُكُمْ وَاَزْوَاجُكُمْ وَعَشِيْرَتُكُمْ وَاَمْوَالُ ن اقْتَرَفْتُمُوْهَا وَتِجَارَةٌ تَخْشَوْنَ كَسَادَهَا وَمَسٰكِنُ تَرْضَوْنَهَآ اَحَبَّ اِلَيْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِه ط وَجِهَادٍ فِيْ سَبِيْلِه فَتَرَبَّصُوْا حَتّٰي يَاْتِيَ اللّٰهُ بِاَمْرِه ط وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ
[सूरह अत्-तौबह: 24]
कह दो, “यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ और रिश्ते-नातेवाले और माल जो तुमने कमाए हैं और कारोबार जिसके मंदा पड़ जाने का तुम्हें भय है और घर जिन्हें तुम पसंद करते हो, तुम्हें अल्लाह और उसके रसूल से और अल्लाह के मार्ग में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं तो फिर प्रतिक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला ले आए; और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्ग नहीं दिखाता
अतः इंसान के अपने प्राण, घर-परिवार, कुंबे, धन-दौलत एवं परिवेश से प्रेम एक प्राकृतिक तथ्य है । उन्हें शरीअत ने ह़राम घोषित नहीं किया जबतक यह अपनी सीमा के अंतर्गत हों । तथा इस स्थिति में प्रेम की सीमा को पार कर जाना यह है कि इन प्रेमों को अल्लाह, उसके पैग़म्बर और उसके रास्ते में जिहाद पर प्राथमिकता दी जाए । तथा उसमें से यह भी है कि मुसलमान को उस क्षेत्र से हिजरत कर जाने का आदेश दिया गया है जहाँ वह अपने दीन को स्थापित न कर सकता हो, भले ही वो क्षेत्र उसका देश ही क्यों न हो जहाँ उसने पालन-पोषण एवं शिक्षा-प्रशिक्षण प्राप्त की हो तथा उससे उसे प्रेम भी हो । और अल्लाह के इस आदेश का पालन तो स्वयं जनाब-ए-खैरुल्-बशर और शताब्दियों के सर्वश्रेष्ठ समूह स़हाबा किराम ने भी किया है, जब वो अपने प्रिय शहर मक्का को, अपने खून-पसीने से इकट्ठा किए गए धन-दौलत को, अपने घर-परिवार तथा संगी-साथी को छोड़कर एक नए अपरिचित परिवेश अर्थात मदीना की ओर हिजरत कर गए, जहाँ न तो उनका कोई कुटुंब था एवं न ही धन-दौलत! यह सब किस लिए था? मात्र इसीलिए कि वो क्षेत्र दारुल-इस्लाम एवं इस्लामी राज्य था ।
और आज जबकि अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर अपनी कृपा की है कि ईराक़ एवं शाम तथा अन्य दूसरे क्षेत्रों में खिलाफ़त की स्थापना हुई है तो उसके साथ ही खिलाफ़त के क्षेत्र दारुल्-हिजरत एवं दारुल्-जिहाद बन गए हैं । और दारुल्-कुफ़्र (जैसे आजकल अर्बी देश एवं वो देश जो स्वयं को इस्लामी कहते हैं) में बसे हुए सभी मुसलमानों पर अनिवार्य है कि वे दौलत-ए-इस्लामिया की ओर हिजरत करें तथा अपने देशों को छोड़ दें । उन्हें लाचारी का ढोंग, आह-हाए करना कोई लाभ न देगा, जिसका बहाना गढ़ने वालों के बारे में अल्लाह तआला कहता है:
ا{اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰئِكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَالُوْا فِيْمَ كُنْتُمْ م قَالُوْا كُنَّا مُسْتَضْعَفِيْنَ فِي الْاَرْضِ م قَالُوْٓا اَلَمْ تَكُنْ اَرْضُ اللّٰهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُوْا فِيْهَا م فَاُولٰئِكَ مَاْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ م وَسَآءَتْ مَصِيْرًا}ا
[सूरह अन्-निसा: 97]
जो लोग अपने आप पर अत्याचार करते हैं, जब फ़रिश्ते उस दशा में उनके प्राण ग्रस्त कर लेते हैं तो कहते हैं, “तुम क़िस दशा में पड़े रहे?” वे कहते हैं,“ हम धरती में निर्बल और बेबस थे ।” फ़रिश्ते कहते हैं,“क्या अल्लाह की धरती विस्तृत न थी कि तुम उसमें घर-बार छोड़कर कहीं चले जाते?” तो ये वही लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है । और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है ।
अतः यह कड़ी धमकी उन लोगों के सन्दर्भ में है जिन्होंने देशप्रेम को प्राथमिकता दी तथा हिजरत के अनिवार्यता को पूरा करने से पीछे बैठे रहे । तो उन लोगों के बारे में कितनी कड़ी धमकी होगी जो दारुल्-इस्लाम को छोड़कर दारुल-कुफ़्र में जा बसे? जैसा कि कुछ तथाकथित मुसलमानों ने इस कार्य को किया है जो दौलत-ए-इस्लामिया के क्षेत्रों को पीठ-पीछे डालकर सलीबियों, राफ़िज़ियों एवं मुल्हिदों के आधीन क्षेत्रों की ओर लपक गए? तो वो क़ियामत के दिन अल्लाह अज़्ज़-वजल के समक्ष क्या उत्तर देंगे?? हम अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि वह मुसलमानों को दारुल्-कुफ़्र को छोड़कर दारुल्-खिलाफ़त की ओर हिजरत करने का अनुदेश करे ।
आमीन